प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥65॥
प्रसादे भगवान की दिव्य कृपा द्वारा; सर्व-सभी; दुःखनाम्-दुखों का; हानि:-क्षय, अस्य-उसके; उपजायते-होता है। प्रसन्न-चेतसः-शांत मन के साथ; हि-वास्तव में आशु-शीघ्र; बुद्धि-बुद्धि; परि-अवतिष्ठते-दृढ़ता से स्थित।
BG 2.65: भगवान की दिव्य कृपा से शांति प्राप्त होती है जिससे सभी दुःखों का अन्त हो जाता है और ऐसे शांत मन वाले मनुष्य की बुद्धि दृढ़ता से भगवान में स्थिर हो जाती है।
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शालीनता एक दिव्य शक्ति है जो मनुष्य के व्यक्तित्व में झलकती है। अपनी कृपा द्वारा भगवान जो सत्-चित्-आनन्द हैं, दिव्य ज्ञान व दिव्य प्रेम और दिव्य आनन्द प्रदान करते हैं। यह कृपा प्रेम, आनन्द और भगवद्ज्ञान में ध्रुव तारे के समान बुद्धि को स्थिर कर देती है। भगवत्कृपा से जब हमें दिव्य प्रेम रस का अनुभव होता है तब इन्द्रियों के सुखों को प्राप्त करने की इच्छा का शमन हो जाता है। एक बार जब सांसारिक विषय भोगों की लालसा समाप्त हो जाती है तब मनुष्य सभी दुःखों से परे हो जाता है और मन शांत हो जाता है। इस प्रकार की संतुष्टि द्वारा से बुद्धि दृढ़ता से यह निर्णय करती है कि समस्त सुखों का उद्गम स्थल और आत्मा का अंतिम लक्ष्य भगवान हैं। पहले तो बुद्धि शास्त्रों में वर्णित ज्ञान के आधार पर इसे स्वीकार करती थी किन्तु अब इसे इसकी अनुभूति भगवान की दिव्य कृपा से होती है। इससे बुद्धि का सन्देह नष्ट हो जाता है और यह दृढ़ता से भगवान में स्थित हो जाती है।